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एम ए सेमेस्टर-1 हिन्दी प्रथम प्रश्नपत्र - हिन्दी काव्य का इतिहास

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2677
आईएसबीएन :0

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हिन्दी काव्य का इतिहास

प्रश्न- भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग क्यों कहते हैं? सकारण उत्तर दीजिए।

अथवा
भक्तिकाल निःसन्देह हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग है। इस कथन की सत्यता प्रमाणित कीजिए और इस काल की परिसीमाओं पर समुचित प्रकाश डालते हुए आधुनिक काल की तुलना में इसका महत्व स्पष्ट कीजिए।

उत्तर -

हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल का स्थान आदिकाल के बाद निर्धारित किया गया है। नामकरण से ही विदित है कि यह काल अपने व्यक्तित्व की गरिमा को वहन कर पाने में पूर्णतः सक्षम है। वस्तुतः भक्तिकाल का साहित्य अपने पूर्ववर्ती आदिकाल और परवर्तीकाल रीतिकाल साहित्य की अपेक्षा कहीं अधिक सशक्त, सुसंस्कृत और उदात्त है। अनुभूति की गहनता और भाव प्रवणता को लेकर न सिर्फ आदिकाल और रीतिकाल बल्कि आधुनिक काल का साहित्य भी अपने व्यापकता और विविधता के बावजूद इसकी समकक्षता में नहीं उतर पाता। आदिकालीन अहंकार धार्मिकता, वीरता, अस्तित्वहीन राष्ट्रीयता और राजनीतिक उद्दण्डता एवं रीतिकालीन मांसल शृंगारिकता, साहित्यिक शिथिलता, वासनात्मकता के सर्वथा विपरीत भक्तिकालीन साहित्य भारतीय सांस्कृतिक गरिमा और राष्ट्रीय चरित्र का काव्य है।

भारतीय दर्शन, धर्म, संस्कृति, ज्योतिष, आयुर्वेद तथा अध्यात्म आदि विषयों की अनुभूत सत्यता को अभिव्यक्ति का आयाम देकर भक्तिकालीन साहित्य पल्लवित पुष्पित होता रहा और इस प्रकार इसके अन्दर निर्गुणोपासकों, सगुणोपासकों, रहस्यवादियों, यथार्थवादियों, आदर्शवादियों, दर्शन परम्परावादियों, स्वप्नवादियों, अस्तित्ववादियों और सबसे बढ़कर कलावादियों आदि विचारधाराओं के समर्थकों को अपने-अपने अनुकूल सामग्री उपलब्ध होती रही है। यही वह कारण है जिसने भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य के स्वर्णयुग के रूप में संज्ञापित किया है। यद्यपि इस कथन की पुष्टि के लिए हमें भक्तिकालीन सम्पूर्ण साहित्यिक प्रवृत्तियों पर विचार करना होगा।

भारतीय दृष्टि में जीवन की व्याख्या का मूल आधार अध्यात्म है और अध्यात्म के संस्कार गर्भित तेज को भक्ति की प्रगाढ धारा से बल मिला, इसमें सन्देह नहीं। यद्यपि भक्ति की इस प्रवाहमान धारा का स्रोत भारतीय वाङ्मय, वैदिक दर्शन, उपनिषद, पुराण, भागवत धर्म और समन्वय की उस सार्वभौम सत्ता की अन्तसचेतना में सम्पृक्त है जिसने मनुष्य को नैतिक, चारित्रिक, मानसिक, अध्यात्मिक और विश्व बन्धुत्व की परिभाषा दी, लेकिन इस पारम्परिक गरिमा से युक्त सांस्कृतिक तत्वों को बदलते सामाजिक परिदृश्यों, राजनीतिक परिस्थितियों, धार्मिक, विसंगतियों और जागतिक स्थितियों के परिवर्तनकारी संकेतों से उत्कर्षापकर्ष मिलता रहा है। किन्तु यह भी सत्य है कि भारतीय समाज और साहित्य में आनन्द और शान्ति, प्रेम और भक्ति, ज्ञान और मुक्ति का अक्षय भंडार लेकर ईश्वरोन्मुखी जीवन चेतना का द्वारा अनुभूति और अभिव्यक्ति के नैरन्तर्य प्रवाह में संलग्न रहा है। भक्तिकाल से पूर्व आदिकालीन समाज रूढ़ियों, आडम्बरों, ढकोसलों, घृणास्पद मान्यताओं और सामाजिक अन्तर्विरोधों की भित्ति पर टिका हुआ एक कमजोर समाज था। संक्रमण के इस दौर में मुस्लिम जहाँ भारतीय जीवन पद्धति में इस्लाम को स्थापित करने के लिए संघर्षरत थे, हिन्दू वहाँ अपने हिन्दुत्व की रक्षा के लिए मरने मिटने को प्रतिबद्ध था। सामाजिक संकीर्णताओं, की दीवारें मजबूत हो रही थी और जीवन निराशा, कुण्ठा, हताशा, विफलता और विपन्नता की ओर बढ़ता ही जा रहा था। इस नैराश्य से उत्पन्न मानसिकता से उबरने के लिए समाज के पास दो ही विकल्प थे भारतीय सांस्कृतिक चेतना की परम्परा का पुनर्जीवन अथवा वर्तमान असंगत जीवन संघर्ष में मृत्यु - वरण | यह सुखद बात है कि साधकों, विचारकों, दार्शनिकों, भक्तों और कवियों ने प्रसंगों से कटे हुए मानव समुदाय को आस्था का अर्घ्यदान देकर भक्ति की विस्तृति में जीवन दृष्टि सम्पन्नता की प्रासंगिकता दी। परम्परा, प्रक्रिया और प्रतिक्रिया की दृष्टि से भक्ति साहित्य के वैविध्य का कारण भी बहुमुखी सामाजिक गतिविधियाँ ही थी। जन सामान्य सामाजिक भय से आक्रान्त भी था और समन्वित चेतना के प्रति विश्वासी भी। इसका परिणाम यह हुआ कि भक्ति प्रवृत्ति में नानाविध साधनाओं, कामनाओं, उपासनाओं की अनुकूलता उत्पन्न हुई।

निर्गुणवादियों ने ज्ञान के आलोक में जीवन की व्याख्या करते हुए जहाँ संसार को भ्रमपूर्ण बताकर परम सत्य के एकत्व की स्थापना की, वहाँ सगुणोपासकों ने धर्म रक्षार्थ, लोक कल्याणार्थ ईश्वरीय अवतारों, लीलाओं और कृपाओं का सौन्दर्यपूर्ण, शीलपूर्ण अभिव्यंजन किया। निर्गुणोपासना में संतकाव्य (ज्ञानाश्रयी) और सूफी काव्य (प्रेमाश्रयी) की परम्परा से जिस समन्वित समाज निर्माण की प्रक्रिया को बल मिला, वह भक्ति साहित्य की अन्यतम उपलब्धि है। ज्ञान और तर्क, बुद्धि और विचार, प्रत्यक्ष ज्ञान और वैज्ञानिक सूझ-बूझ के द्वारा संत कवियों ने सामाजिक वैषम्यों, राजनीतिक उहापोहों, धार्मिक पाखण्डों और साम्प्रदायिक विचारों को, व्यंग्य और विद्रोहों का तीखा दंश देकर जीवन की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति में स्वयं को सहायक सिद्ध किया। इसी क्रम में सूफी कवियों ने प्रेम और भावना, शान्ति और संवेदना और मानवीय शुभकामनाओं से सम्पृक्त होकर जीवन की व्याख्या के लिए सात्विक प्रेम की तात्विकता का ब्योरेवार वर्णन किया। इस प्रकार वैचारिक और सांस्कृतिक चेतना से युक्त संतकाव्य और सूफी काव्य भारतीय जीवन में हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य का समाधान दर्शाता है। सिद्धों और नाथों की वाणियों से उद्भूत संतकाव्य जनभाषा के माध्यम से अद्वैत दर्शन के आधार स्वरूप सभी मनुष्यों और प्राणियों के भेदभाव रहित ईश्वरमय समझने की दृष्टि देता है, शरीर और आत्मा (आचरण-शुद्धि) की शुद्धि के लिए योगसाधना की स्वीकृति देता है और ईश्वर के प्रति तीव्र प्रेमभाव की भक्ति प्रदर्शित करता है। इसी के अनुरूप भारतीय प्रेमाख्यानों पर आधारित सूफी काव्य अवधी जैसी लोकप्रिय भाषा और दोहा, चौपाई शैली के माध्यम से लौकिक प्रेमकथाओं को माध्यम बनाकर आत्मा-परमात्मा के अलौकिक प्रेमाभिव्यक्ति को प्रश्रय देता है, हिन्दू-मुस्लिम संस्कृति का समन्वय दर्शाता है और जीवन की सार्थकता के लिए प्रेम की व्यापकता को अनिवार्य बताता है। कबीर ने जहाँ वैष्णव मत, योग साधना और सूफी प्रेमतत्व की सम्मिश्रति से स्वच्छन्द जीवन मार्ग की साधना का द्वार खोला तो जायसी ने त्याग, तप, सहनशीलता और प्रेम की महत्ता को निरूपित करते हुए जीवन की विस्तृति को व्यापकता का आधार दिया। कबीर काव्य में साखी जीवन सम्बन्धी उपदेश और अध्यात्म), सबद (योगसाधना और भक्ति पद) और रमैनी (दार्शनिक विचार) की उत्कृष्टता पर अब संदेह करना मानवीय मूल्यों की शाश्वता को झुठलाना ही होगा। जायसी ने पदमावत जैसी वृति के माध्यम से ही भारतीय अद्वैत दर्शन, वेदान्तिक जीवन-दृष्टि, हठयोग साधना और सूफी मतों की तात्विकता के समन्वय में समाज को विकासोन्मुख और साहित्य को समाजोन्मुख कर दिखाया।

इसके विपरीत सगुणोपासना में तुलसी और सूर आदि कवियों ने क्रमशः रामाश्रयी और कृष्णाश्रयी भक्तिधारा के प्रणयन में विस्मरणीय योगदान दिया है। ईश्वरीय गुणों से सम्पन्न राम और कृष्ण भारतीय संस्कृति के उन्नायक है जिनकी अभिव्यक्ति में तुलसी और सूर ने लोकमंगल की भावना से प्रेरित होकर मानवोचित गुणों की विशद व्याख्या की है। विशुद्ध शृंगार, विज्ञान सम्मत धर्म और लोकचेतस् भक्ति के रूप में इनका काव्य एक आदर्श काव्य है। इसी प्रकार संस्कृत, अपभ्रंश, प्राकृत, उर्दू, फारसी की परम्परा में ब्रजभाषा, अवधी और जनभाषा के प्रयोग से इन कवियों ने वर्णन सौन्दर्य, भाषा - सामर्थ्य, भाव-व्यंजना, रहस्य संकेत और भक्ति की प्रगाढ़ता के अभिव्यंजन में अतुलनीय सफलता पायी है। सगुणोपासक कवियों की अन्यतम विशिष्टता के रूप में लोकचेतना की सम्पृक्ति का प्राधान्य भी परिगणित किया जा सकता है। दैनिक जीवन रहन-सहन, रीति-रिवाज, पर्व-त्योहार, वेष-भूषा, रूप-रंग, आस्था - विश्वास, आचार-विचार के वैविध्यों और वैचित्र्यों के सर्वथाअनुरूप सगुण भक्ति में अवतारवाद और जन्म-जन्मान्तरवाद की मान्यता स्वीकृति की गयी। यथार्थ जीवन के झंझावतों से टूट जाते हुए जन समुदाय को ईश्वर के प्रति दर्शन का एक विधान प्राप्त हुआ और लौकिक शृंगार से परिपूरित, आदर्श प्रेम में मंडित ईश्वरोपासना में उसकी आस्था बढ़ी। यही कारण भी रहा है कि 'भक्ति आन्दोलनों में शंकराचार्य ने ज्ञानाधारित अद्वैतवादी के प्रतिक्रियास्वरूप कई एक सम्प्रदायों का जमाव शुरू हुआ। रामानुजाचार्य (विशिष्टाद्वैत), बल्लाभाचार्य (शुद्धाद्वैत), निम्बार्कचार्य (द्वैताद्वेत). मध्वाचार्य (द्वैतवाद) महाप्रभु चैतन्य (कृष्ण गौड़ीय सम्प्रदाय) और हितहरिवंश (गौड़ीय सम्प्रदाय) आदि भिन्न-भिन्न धार्मिक आन्दोलनों के प्रचार-प्रसार, विकास- चमत्कार और मत - वैविध्य के बावजूद समाज को विकासोन्मुखता प्राप्त हुई जिसमें लोकमंगल की भावना का संस्कार फलित होता रहा। ज्ञान और प्रेम की अशरीरी चिन्ताओं में जनसामान्य का विश्वास तो था लेकिन अनुभूति की सहजता को जनोपलब्ध कराने के लिए ही सगुणोपासकों ने मूर्ति पूजा, देवमंदिर निर्माण, धर्म-धारित पर्व-त्योहारों की अनिवार्यता पर बल दिया।

इसी क्रम में भक्तिकाल की विशिष्टताओं में कलावादियों का योगदान भी महती प्रतिभा का परिचायक है। इस काल में भक्ति-शृंगार, प्रेम, अध्यात्म और भारतीय सांस्कृतिक दृष्टि सम्पन्नता की प्रतीति के निमित्त विविध कलाओं में नवीन सूत्रात्मकता का सन्दर्भ उल्लेखनीय है। संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला, वास्तुकला आदि सौन्दर्य अभिव्यंजना में भी अभिवृद्धि की नवीन भावना देखने को मिलती है। ललितकला के इन परिदृश्यों में मनुष्यों की अन्तः वृत्तियों, सौन्दर्यानुभूतियों और सूक्ष्म संवेदनाओं के साथ बाह्य परिस्थितिजन्य संघर्षों का सार्थक सामञ्जस्य दर्शाया गया है। वास्तुकला और मूर्तिकला की दृष्टि से भारतीय भक्ति भावना का आधिक्य इस काल में वैविध्यपूर्ण है जबकि मुस्लिम धर्मानुभूति में इनका किंचित अभाव मिलता है। भक्तिकालीन देवमंदिरों में भिन्न रंगों, रूपाकारों, पत्थरों, संकेतों और प्रतीकों का योग वास्तुकला के साफल्य का सूचक है तो मूर्तिकला के अनन्तर, ईश्वरी अवतारों, लीलाओं, चमत्कारों और श्रद्धा-वैविध्यों को महत्व मिलता रहा है। इसके विपरीत इस्लामापेक्षी दृष्टि में मस्जिदों का मक्कोन्मुखी होना ही वास्तुकला का आदर्श रहा है तो मूर्तिभंजक होने के कारण इसके अनन्तर मूर्तिकला के उद्भास की अपेक्षा करना ही सार्थक नहीं होगा। जहाँ तक चित्रकला का प्रश्न है, भक्तिकाल में इसका विकास कुछ अधिक प्रखर रहा। प्राकृतिक दृश्यों, मानवीय संवेदनाओं आध्यात्मिक वृत्तियों और धार्मिक आस्थाओं को व्यक्त करने वाले चित्रों के आधिक्य से भारतीय दर्शन और सांस्कृतिक सौन्दर्य दोनों को अभिव्यक्ति मिली। इस प्रकार इस काल में भिन्न-भिन्न रसों, रंगों, रूपों और रेखाओं के समन्वय से युद्ध क्षेत्रों, राजरुचियों श्रृंगार सन्दर्भों को भी महत्ता मिली है। उसी प्रकार संगीतकला के अनन्तर आलोच्य काल में संगीत घरानों के प्रभाव में गायन और नर्तन दोनों रूपों का विकास हुआ जिसके फलस्वरूप नये-नये वाद्ययंत्रों का आविष्कार, नयी-नयी राग-रागिनियों का विस्तार और हिन्दू-मुस्लिम राजाओं के प्रसाद में प्रचलित दरबारी संस्कार से संगीत विधा का व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ।

इस प्रकार उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि भक्तिकाल हिन्दी साहित्य की विकास यात्रा का एक ऐसा पड़ाव है जहाँ आदिकालीन संकीर्ण और राष्ट्रीय चरित्रवान की मानसिकता का विरोध भी है और सांस्कृतिक तत्वों के बीज रूप का व्यापक विस्तार भी। समन्वय की विराट चेतना से सम्पृक्त आलोच्यकाल जीवन की विसंगतियों में आस्था की संगति का संकीर्ण विचारों की अधिकता में सार्वभौम अनुभूतियों की तीव्रता का संकेत आलोकवाद उन्मीलित करता है। जीवन की इस व्याख्या के निमित्त ही हिन्दुओं का निर्गुण मुस्लिम खुदावाद से नैकट्य प्राप्त करता है और मुस्लिम सूफी मत हिन्दू सर्वेश्वरवाद का सान्निध्य पाता है। यही कारण है कि आत्मप्रेरणा और अन्तःप्रेरणा का काव्य होने के कारण इसमें आदिकालीन स्वान्तः सुखाय और रीतिकालीन स्वामित्व सुखाय की भावना कम और सर्वान्त सुखाय का प्राबल्य अधिक है। यह साहित्य निश्छल आत्माभिव्यक्ति का प्रतिबिम्ब है जिसमें सत्य, उल्लास, आनन्द, श्रद्धा, विवेक और समाजोन्मुखता जैसी युग निर्माणकारी भावनाओं का तेज आलोकित होता है। जनाकांक्षा से ईश्वराकांक्षा तक स्वस्थ रूढिगत संस्कारों से सार्वजनीन परिवर्तनाधिकारों तक आत्मतत्व से विश्व तत्व की मानसिक और आध्यात्मिक खोज में सर्वथा साधन सम्पन्न भक्त कवियों ने विषम जीवन को मर्यादित आदर्श की परिभाषा दी। भक्तिकालीन साहित्य में साहित्य और समाज जीवन और लोक चेतना, भाव और कला का समन्वय उदात्त, उष्मित और उन्नत है।

तुलसी ने शील, स्नेह और सौन्दर्य के द्वारा लोकमंगल की भावना को परिभाषित किया तो सूर ने भक्ति, संगीत और सौन्दर्य की त्रिवेणी में सांस्कृतिक गरिमा को व्याख्यायित किया। कबीर, जायसी, मीरा, रसखान आदि की कवितायें विश्व साहित्य के सम्मुख गर्व कर सकती है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति इतिहास, लोकाचार, भक्ति विज्ञान समस्त साधना, अध्यात्मक और जनसामान्य की आकांक्षाओं के सर्वथा अनुरूप भक्तिकाल आत्मा और हृदय, सत्य और शान्ति का आदर्श काव्य है। सारतः और सारांशतः यह कहना उचित ही होगा कि साहित्यिक उदात्तता, पावनता, गम्भीरता, कलात्मकता और भाव प्रवणता की दृष्टि से भक्तिकाल न केवल इतिहास और साहित्य का वरन भारतीय जीवन पद्धति का स्वर्णकाल है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- इतिहास क्या है? इतिहास की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  2. प्रश्न- हिन्दी साहित्य का आरम्भ आप कब से मानते हैं और क्यों?
  3. प्रश्न- इतिहास दर्शन और साहित्येतिहास का संक्षेप में विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- साहित्य के इतिहास के महत्व की समीक्षा कीजिए।
  5. प्रश्न- साहित्य के इतिहास के महत्व पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  6. प्रश्न- साहित्य के इतिहास के सामान्य सिद्धान्त का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
  7. प्रश्न- साहित्य के इतिहास दर्शन पर भारतीय एवं पाश्चात्य दृष्टिकोण का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
  8. प्रश्न- हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा का विश्लेषण कीजिए।
  9. प्रश्न- हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा का संक्षेप में परिचय देते हुए आचार्य शुक्ल के इतिहास लेखन में योगदान की समीक्षा कीजिए।
  10. प्रश्न- हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन के आधार पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  11. प्रश्न- इतिहास लेखन की समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी साहित्य इतिहास लेखन की समस्या का वर्णन कीजिए।
  12. प्रश्न- हिन्दी साहित्य इतिहास लेखन की पद्धतियों पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  13. प्रश्न- सर जार्ज ग्रियर्सन के साहित्य के इतिहास लेखन पर संक्षिप्त चर्चा कीजिए।
  14. प्रश्न- नागरी प्रचारिणी सभा काशी द्वारा 16 खंडों में प्रकाशित हिन्दी साहित्य के वृहत इतिहास पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  15. प्रश्न- हिन्दी भाषा और साहित्य के प्रारम्भिक तिथि की समस्या पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  16. प्रश्न- साहित्यकारों के चयन एवं उनके जीवन वृत्त की समस्या का इतिहास लेखन पर पड़ने वाले प्रभाव का संक्षिप्त वर्णन कीजिए।
  17. प्रश्न- हिन्दी साहित्येतिहास काल विभाजन एवं नामकरण की समस्या का वर्णन कीजिए।
  18. प्रश्न- हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन आप किस आधार पर करेंगे? आचार्य शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास का जो विभाजन किया है क्या आप उससे सहमत हैं? तर्कपूर्ण उत्तर दीजिए।
  19. प्रश्न- हिन्दी साहित्य के इतिहास में काल सीमा सम्बन्धी मतभेदों का विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिए।
  20. प्रश्न- काल विभाजन की उपयोगिता पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  21. प्रश्न- काल विभाजन की प्रचलित पद्धतियों को संक्षेप में लिखिए।
  22. प्रश्न- रासो काव्य परम्परा में पृथ्वीराज रासो का स्थान निर्धारित कीजिए।
  23. प्रश्न- रासो शब्द की व्युत्पत्ति बताते हुए रासो काव्य परम्परा की विवेचना कीजिए।
  24. प्रश्न- निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए - (1) परमाल रासो (3) बीसलदेव रासो (2) खुमान रासो (4) पृथ्वीराज रासो
  25. प्रश्न- रासो ग्रन्थ की प्रामाणिकता पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  26. प्रश्न- विद्यापति भक्त कवि है या शृंगारी? पक्ष अथवा विपक्ष में तर्क दीजिए।
  27. प्रश्न- "विद्यापति हिन्दी परम्परा के कवि है, किसी अन्य भाषा के नहीं।' इस कथन की पुष्टि करते हुए उनकी काव्य भाषा का विश्लेषण कीजिए।
  28. प्रश्न- विद्यापति का जीवन-परिचय देते हुए उनकी रचनाओं पर संक्षिप्त प्रकाश डालिए।
  29. प्रश्न- लोक गायक जगनिक पर प्रकाश डालिए।
  30. प्रश्न- अमीर खुसरो के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालिए।
  31. प्रश्न- अमीर खुसरो की कविताओं में व्यक्त राष्ट्र-प्रेम की भावना लोक तत्व और काव्य सौष्ठव पर प्रकाश डालिए।
  32. प्रश्न- चंदबरदायी का जीवन परिचय लिखिए।
  33. प्रश्न- अमीर खुसरो का संक्षित परिचय देते हुए उनके काव्य की विशेषताओं एवं पहेलियों का उदाहरण प्रस्तुत कीजिए।
  34. प्रश्न- अमीर खुसरो सूफी संत थे। इस आधार पर उनके व्यक्तित्व के विषय में आप क्या जानते हैं?
  35. प्रश्न- अमीर खुसरो के काल में भाषा का क्या स्वरूप था?
  36. प्रश्न- विद्यापति की भक्ति भावना का विवेचन कीजिए।
  37. प्रश्न- हिन्दी साहित्य की भक्तिकालीन परिस्थितियों की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- भक्ति आन्दोलन के उदय के कारणों की समीक्षा कीजिए।
  39. प्रश्न- भक्तिकाल को हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग क्यों कहते हैं? सकारण उत्तर दीजिए।
  40. प्रश्न- सन्त काव्य परम्परा में कबीर के योगदान को स्पष्ट कीजिए।
  41. प्रश्न- मध्यकालीन हिन्दी सन्त काव्य परम्परा का उल्लेख करते हुए प्रमुख सन्तों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  42. प्रश्न- हिन्दी में सूफी प्रेमाख्यानक परम्परा का उल्लेख करते हुए उसमें मलिक मुहम्मद जायसी के पद्मावत का स्थान निरूपित कीजिए।
  43. प्रश्न- कबीर के रहस्यवाद की समीक्षात्मक आलोचना कीजिए।
  44. प्रश्न- महाकवि सूरदास के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की समीक्षा कीजिए।
  45. प्रश्न- भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ या विशेषताएँ बताइये।
  46. प्रश्न- भक्तिकाल में उच्चकोटि के काव्य रचना पर प्रकाश डालिए।
  47. प्रश्न- 'भक्तिकाल स्वर्णयुग है।' इस कथन की मीमांसा कीजिए।
  48. प्रश्न- जायसी की रचनाओं का संक्षेप में उल्लेख कीजिए।
  49. प्रश्न- सूफी काव्य का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  50. प्रश्न- निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए -
  51. प्रश्न- तुलसीदास कृत रामचरितमानस पर संक्षिप्त टिप्पणी कीजिए।
  52. प्रश्न- गोस्वामी तुलसीदास के जीवन चरित्र एवं रचनाओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
  53. प्रश्न- प्रमुख निर्गुण संत कवि और उनके अवदान विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- कबीर सच्चे माने में समाज सुधारक थे। स्पष्ट कीजिए।
  55. प्रश्न- सगुण भक्ति धारा से आप क्या समझते हैं? उसकी दो प्रमुख शाखाओं की पारस्परिक समानताओं-असमानताओं की उदाहरण सहित व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- रामभक्ति शाखा तथा कृष्णभक्ति शाखा का तुलनात्मक विवेचन कीजिए।
  57. प्रश्न- हिन्दी की निर्गुण और सगुण काव्यधाराओं की सामान्य विशेषताओं का परिचय देते हुए हिन्दी के भक्ति साहित्य के महत्व पर प्रकाश डालिए।
  58. प्रश्न- निर्गुण भक्तिकाव्य परम्परा में ज्ञानाश्रयी शाखा के कवियों के काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिए।
  59. प्रश्न- कबीर की भाषा 'पंचमेल खिचड़ी' है। सउदाहरण स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- निर्गुण भक्ति शाखा एवं सगुण भक्ति काव्य का तुलनात्मक विवेचन कीजिए।
  61. प्रश्न- रीतिकालीन ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक पृष्ठभूमि की समीक्षा कीजिए।
  62. प्रश्न- रीतिकालीन कवियों के आचार्यत्व पर एक समीक्षात्मक निबन्ध लिखिए।
  63. प्रश्न- रीतिकालीन प्रमुख प्रवृत्तियों की विवेचना कीजिए तथा तत्कालीन परिस्थितियों से उनका सामंजस्य स्थापित कीजिए।
  64. प्रश्न- रीति से अभिप्राय स्पष्ट करते हुए रीतिकाल के नामकरण पर विचार कीजिए।
  65. प्रश्न- रीतिकालीन हिन्दी कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों या विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
  66. प्रश्न- रीतिकालीन रीतिमुक्त काव्यधारा के प्रमुख कवियों का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार दीजिए कि प्रत्येक कवि का वैशिष्ट्य उद्घाटित हो जाये।
  67. प्रश्न- आचार्य केशवदास का संक्षिप्त जीवन परिचय देते हुए उनकी काव्यगत विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
  68. प्रश्न- रीतिबद्ध काव्यधारा और रीतिमुक्त काव्यधारा में भेद स्पष्ट कीजिए।
  69. प्रश्न- रीतिकाल की सामान्य विशेषताएँ बताइये।
  70. प्रश्न- रीतिमुक्त कवियों की विशेषताएँ बताइये।
  71. प्रश्न- रीतिकाल के नामकरण पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  72. प्रश्न- रीतिकालीन साहित्य के स्रोत को संक्षेप में बताइये।
  73. प्रश्न- रीतिकालीन साहित्यिक ग्रन्थों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  74. प्रश्न- रीतिकाल की सांस्कृतिक परिस्थितियों पर प्रकाश डालिए।
  75. प्रश्न- बिहारी के साहित्यिक व्यक्तित्व की संक्षेप मे विवेचना कीजिए।
  76. प्रश्न- रीतिकालीन आचार्य कुलपति मिश्र के साहित्यिक जीवन का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  77. प्रश्न- रीतिकालीन कवि बोधा के कवित्व पर प्रकाश डालिए।
  78. प्रश्न- रीतिकालीन कवि मतिराम के साहित्यिक जीवन पर प्रकाश डालिए।
  79. प्रश्न- सन्त कवि रज्जब पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  80. प्रश्न- आधुनिककाल की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, सन् 1857 ई. की राजक्रान्ति और पुनर्जागरण की व्याख्या कीजिए।
  81. प्रश्न- हिन्दी नवजागरण की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  82. प्रश्न- हिन्दी साहित्य के आधुनिककाल का प्रारम्भ कहाँ से माना जाये और क्यों?
  83. प्रश्न- आधुनिक काल के नामकरण पर प्रकाश डालिए।
  84. प्रश्न- भारतेन्दुयुगीन कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों की सोदाहरण विवेचना कीजिए।
  85. प्रश्न- भारतेन्दु युगीन काव्य की भावगत एवं कलागत सौन्दर्य का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- भारतेन्दु युग की समय सीमा एवं प्रमुख साहित्यकारों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  87. प्रश्न- भारतेन्दुयुगीन काव्य की राजभक्ति पर प्रकाश डालिए।
  88. प्रश्न- भारतेन्दुयुगीन काव्य का संक्षेप में मूल्यांकन कीजिए।
  89. प्रश्न- भारतेन्दुयुगीन गद्यसाहित्य का संक्षेप में मूल्यांकान कीजिए।
  90. प्रश्न- भारतेन्दु युग की विशेषताएँ बताइये।
  91. प्रश्न- द्विवेदी युग का परिचय देते हुए इस युग के हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में योगदान की समीक्षा कीजिए।
  92. प्रश्न- द्विवेदी युगीन काव्य की विशेषताओं का सोदाहरण मूल्यांकन कीजिए।
  93. प्रश्न- द्विवेदी युगीन हिन्दी कविता की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
  94. प्रश्न- द्विवेदी युग की छः प्रमुख विशेषताएँ बताइये।
  95. प्रश्न- द्विवेदीयुगीन भाषा व कलात्मकता पर प्रकाश डालिए।
  96. प्रश्न- छायावाद का अर्थ और स्वरूप परिभाषित कीजिए तथा बताइये कि इसका उद्भव किस परिवेश में हुआ?
  97. प्रश्न- छायावाद के प्रमुख कवि और उनके काव्यों पर प्रकाश डालिए।
  98. प्रश्न- छायावादी काव्य की मूलभूत विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
  99. प्रश्न- छायावादी रहस्यवादी काव्यधारा का संक्षिप्त उल्लेख करते हुए छायावाद के महत्व का मूल्यांकन कीजिए।
  100. प्रश्न- छायावादी युगीन काव्य में राष्ट्रीय काव्यधारा का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  101. प्रश्न- 'कवि 'कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल-पुथल मच जायें। स्वच्छन्दतावाद या रोमांटिसिज्म किसे कहते हैं?
  102. प्रश्न- छायावाद के रहस्यानुभूति पर प्रकाश डालिए।
  103. प्रश्न- छायावादी काव्य में अभिव्यक्त नारी सौन्दर्य एवं प्रेम चित्रण पर टिप्पणी कीजिए।
  104. प्रश्न- छायावाद की काव्यगत विशेषताएँ बताइये।
  105. प्रश्न- छायावादी काव्यधारा का क्यों पतन हुआ?
  106. प्रश्न- प्रगतिवाद के अर्थ एवं स्वरूप को स्पष्ट करते हुए प्रगतिवाद के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा साहित्यिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।
  107. प्रश्न- प्रगतिवादी काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियों का वर्णन कीजिए।
  108. प्रश्न- प्रयोगवाद के नामकरण एवं स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए इसके उद्भव के कारणों का विश्लेषण कीजिए।
  109. प्रश्न- प्रयोगवाद की परिभाषा देते हुए उसकी साहित्यिक पृष्ठभूमि पर प्रकाश डालिए।
  110. प्रश्न- 'नयी कविता' की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  111. प्रश्न- समसामयिक कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों का समीक्षात्मक परिचय दीजिए।
  112. प्रश्न- प्रगतिवाद का परिचय दीजिए।
  113. प्रश्न- प्रगतिवाद की पाँच सामान्य विशेषताएँ लिखिए।
  114. प्रश्न- प्रयोगवाद का क्या तात्पर्य है? स्पष्ट कीजिए।
  115. प्रश्न- प्रयोगवाद और नई कविता क्या है?
  116. प्रश्न- 'नई कविता' से क्या तात्पर्य है?
  117. प्रश्न- प्रयोगवाद और नयी कविता के अन्तर को स्पष्ट कीजिए।
  118. प्रश्न- समकालीन हिन्दी कविता तथा उनके कवियों के नाम लिखिए।
  119. प्रश्न- समकालीन कविता का संक्षिप्त परिचय दीजिए।

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